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________________ १३. समाधि आत्मा मे या परमात्मा मे तल्लीन हो जाना समाधि है। ध्याता, ध्यान और ध्येय की भिन्नता को भूलकर स्वय ध्येयमय हो जाने की अवस्था ही समाधि है। इस अवस्था मे, मानसिक आनन्द असीम हो उठता है। चेतना की बाह्य वृत्तिया नष्ट जैसी हो जाती है, बाह्य पदार्थो की प्रतीति ही नही रह जाती, साधक सब क्लेशो से मुक्त होकर अनेक प्रकार की सिद्धिया प्राप्त कर लेता है। सम् पूर्वक आधि शब्द मे इस की निष्पत्ति हुई है। जव मानसिक रोगो अर्थात् सुख, दुख, काम, क्रोध, लोभ मोह, राग, द्वेष, चिन्ता, भय, शोक और भ्रान्ति आदि रोग-समूह से मन मुक्त हो जाता है तब वह पूर्णतया स्वस्थ हो जाता है, मन की उस स्वस्थ अवस्था को भी समाधि कहा जाता है। समाधि परमानन्द पाने की एक चाबी है, दुर्गतियो से निकलने का महामार्ग है, मन की वृत्तियो को अन्तर्मुखी बनाने का अमोघ उपाय है, अत्यधिक श्रम, अपथ्य आहार और अनुचित व्यवहार, दूपित निवासस्थान, अकर्मण्यता, व्याधि, सशय, प्रमाद, विषयाभिलाषा, भ्रान्ति-दर्शन, अस्थिरचित्तता मन की असमर्थता आदि सब समाधि के वाधक तत्त्व हैं । वस्तुत देखा जाए तो चित्त की ५४] [योग . एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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