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सम्यग्दृष्टि का इष्ट सदाचार होता है। सद्+प्राचार इन दो शब्दो से सदाचार गब्द बनता है। क्षमा, सहिष्णुता, विनय, शील, सेवा और समर्पण इनके सामूहिक रूप का नाम सदाचार है। विवेकशीलता, न्याय प्रियता, वीरता और सच्चरित्रता इन विशेष गुणो के मध्य मे सम्यग्दृष्टि सन्तुलित रूप मे रहता है। जैसे अग्नि मे से मणि-मन्त्र एव औषधि के द्वारा उष्णता दूर की जा सकती है, वैसे ही राग-द्वेष भी मन के धर्म है, उन्हे योगक्रिया द्वारा दूर किया जा सकता है। राग और द्वेष मे भय छिपा हुआ है, जब शरीर पर राग होता है, तब रोग एव मृत्यु का भय उपस्थित हो जाता है, यदि धन पर राग है तव धन-नाश का भय, यदि कामगुणो मे राग है तो वियोग का भय, यश पर राग है तो अपयश का भय, यदि भौतिक सुख पर राग है तो दुख का भय उपस्थित हो जाता है। इसी भय-मुक्तता को लक्ष्य मे रखकर सम्यग्दृष्टि वीतरागता एव द्वषमुक्तता की ओर बढ़ता है।
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योग एक चिन्तन ]
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