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________________ तो स्पष्ट रूप में प्रात्महत्या है ? फिर इसको ब्रत मानकर त्यागधर्म मे स्थान देना कहा तक उचित है ? इस गका के समाधान में यह दृढता से कहा जा सकता है कि अनगन देखने में भले ही दुखकारी या प्राणनामा प्रतीत होता हो, किन्तु सलेखनानन मे प्राणनाग तो होता ही है, किन्तु वह हिंसा की कोटि में नहीं माना जा सकता, क्योंकि अनगन मे राग-द्वेष, मोह आदि विकार नहीं होते, जबकि प्रात्महत्या या परहत्या रागहेप, क्रोध, मान प्रादि विचारो के बिना नही हो सकती। इस व्रत से तो माधक शुद्ध ध्यान की उपलब्धि करता है क्योकि संलेखना तो त्याग-प्रधान धर्म है। धर्म के साथ जोना और धर्म के साथ मरना यही जैन सस्कृति का मुव्य ध्येय है । जव देह का अत निश्चित रूप से जान पड़े, तब मरणभय से सर्वथा मुक्त होकर दुर्ध्यान मे निवृत होकर, सयम और तप की विशिष्ट अाराधना के लिए इस व्रत को विवेय माना गया है। __ प्राचाराग-सूत्र में बताया गया है कि जव मुनि को यह अनुभव हो कि मैं इस गरीर को धारण करने में बिल्कुल असमर्थ हो रहा है, उसे देहात का ज्ञान हो जाए, तब वह क्रम से ग्राहार का सकोत्र करे, शरीर को एक कपायो को तपस्या से कृश करे। जिम मनि का चारित्र निरतिचार रूप में पल रहा हो, सलेखना कराने वाले प्राचार्य भी मुलम हो, दुर्भिस प्रादि का भय भी न हो, किन्तु उसे देहपात का ज्ञान नहीं, तब वह सयारे का अधिकारी नहीं माना जा सकता। यदि किसी विशिष्ट कारण से वह संथारा करना चाहता है तो मानना पडेगा कि चारित्र की कठिनता में या किसी अन्य कारण से उसका चित्त खिन्न हे और वह खिन्नता के आवेग मे प्राणो को त्याग करना चाहता है। ऐसा प्राण-त्याग जैन सस्कृति को इप्ट नहीं है। २६०] वो . एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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