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________________ ११. शुचि 1 शुचि का अर्थ है पवित्रता । दूसरे शब्दो मे इसको उत्तम गौच भी कहते है । जैसे कोई भी मनुष्य अपने शरीर को और अपने वस्त्रादि उपकरणो को अपवित्र नही होने देता, यदि कारण वा अपवित्र हो भी जाए तो उन्हे अपवित्र नही रहने देता, बल्कि उन्हे शीघ्र ही शुद्ध करने का प्रयास करता है इसी प्रकार हमे मन को भी कभी अपवित्र नही होने देना चाहिये । यदि किसी कारण से मन पवित्र हो जाए - उसमे बुरे भाव प्रा जाए तो उन्हे हटाकर शीघ्र ही मन को पवित्र कर लेने का प्रयास करना चाहिये । द्रव्य को द्रश्य से शुद्ध किया जा सकता है, भावो को नही, अशुद्ध भावो की शुद्धि तो शुद्ध भावो से ही हो सक्ती है । "आचार और विचार मे पवित्रता का होना ही शुचि है, श्रान्तरिक मैल को धोना ही वास्तविक पवित्रता है । शरीर बाह्य रूप से चाहे पवित्र हो जाय - साफ हो जाय, किन्तु प्रान्तरिक रूप से इसकी शुद्धि सेवथा असम्भव है, क्योंकि यह अशुचि पदार्थो का स्रोत है । गंगा की धारा मे महीनो तक डुवाए रहने पर भी इस की पवित्रता संभव नही । विष्ठा से भरे हुए घड़े को ऊपर से घो देने पर भी क्या वह पवित्र हो सकता है ? कभी नही । पानी से इस शरीर की शुद्धि भी औपचारिक होती है, वास्तविक नही । योग एक चिन्तन ] [ ४१
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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