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________________ __ सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान हुया करता है, सम्यग्ज्ञान वही है जो यथार्थ एव स्थ-पर के लिए हितकर एव श्रेयस्कर होता है, वह ज्ञान ज्ञानी को ससार और ससार मे आवागमन के सभी कारणों से बचाता है, मोक्ष और मोक्ष के साधनो मे प्रवृत्ति करोता है। इसी कारण उस ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। सम्यग्ज्ञान होने पर ही सम्यक चारित्र की आराधना की जाती है, इस सम्यक् चारित्र का अंतर्भाव योग मे ही हो जाता है। यद्यपि योग शब्द अनेक अर्थो का बोधक है जैसे कि गणित मे दो से अधिक राशियो के जोड को योग कहा जाता है, ज्योतिष-शास्त्र मे नक्षत्र एव राशि आदि की विशेष फलदायिनी युति ही योग है । तिथि-वार और नक्षत्र के मेल से प्रानन्द आदि योगो का होना योग माना जाता है। किसी शुभ काल के लिए भी योग शब्द का प्रयोग होता है। अनेक औषधियो के समिश्रण की विधि को भी योग कहते हैं। मन, वचन और काया की शुभ या अशुभ प्रवृत्ति को भी जैन परिभापा मे योग कहा जाता है, परन्तु यहा योग शब्द का इष्ट अर्थ सम्यक् चारित्र ही है। यात्म-कल्याण के जितने भी सफल साधन है वे सब योग हैं । जिस ध्यान द्वारा ध्याता का सवन्ध ध्येय के साथ जुड़ जाए वह योग है, अर्थात् चित्त को एकाग्र करने के सभी विधि विधान योग हैं, अर्थात् कर्म-वध से मुक्त होने के जितने भी विधि-विधान है उन सबका अन्तर्भाव योग मे ही हो जाता है। ऐसे विधि-विधानो की सख्या वत्तीस निर्धारित की गई है । इसी कारण उन्हे द्वात्रिंशत्योग-सग्रह कहा गया है। साधना जीवन की वह मस्ती है जिस मे भौतिक सुख-दु ख का भान ही नही रहता । मन जब योग के केन्द्र मे पहुच जाता है तब मन मे उत्पन्न होने वाले सभी योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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