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________________ नहीं किया जाता है, दिन मे एक ही वार रूक्ष, नीरस भोजन करना होता है । रूखा फुनका या सत्तु या एक जाति के मुन्ने दाने इनमे से किसी एक के द्वारा प्रायविल करने का विधान है। एकाशना और एक स्थान तप की अपेक्षा प्रायविल तप का विशेष महत्त्व है। यह तप जितेन्द्रिय वनने का पाठ सिखाता है। यह रसनेन्द्रिय को संयम की ओर ले जाने वाला तप है। खाने के लिए बैठ कर भी मन पसन्द आहार न करना महान तप है। " : (ए) उपवास-जिस तप में साधक खान-पानादि का त्याग करके आत्म-अवस्थित होने का प्रयास करता है, उसे उपवास कहते हैं। इसके दो भेद हैं-चतुर्विध आहार का त्याग और त्रिविधं आहार का त्याग । उपवास दोनो मे से कोई भी हो, उस से सपम की पुष्टि होनी चाहिये, कपायों की मदता हो, मन निर्विकार हो जाए, तभी वह उपवास कहा जाता है। उपवास मे मंगलभावना का होना अवश्यंभावी है । सूर्योदय से लेकर सूर्योदय होने तक चौवीम घटे के लिए उपवास किया जाता है। इसकी दूसरी सना चतुर्थ-भक्त भी है। . . .. . __(ऐ) चरम-अन्तिम भाग को चरम कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है । दिवस का अन्तिम भाग और आयु का अन्तिम भाग, जिसे दूसरे शब्दो में भव चरम भी कहते हैं। कम से कम दो घंडी दिन रहते ही आहार-पानी से निवृत्त हो कर चरम प्रत्याख्यान कर लेना चाहिए। जब साधक को यह निश्चय हो जाए कि मेरी प्रायु अव थोड़ी ही रह गई है, अत परलोक . के सुधार के लिये अपश्चिम मारणान्तिक सलेखना की आराधना विधिपूर्वक कर लेनी चाहिए । जीवन भर के लिए चउविहार यातिविहार का त्याग करना चरम-प्रत्यख्यान कहलाता है।" [ योग : एक चिन्तन - 11 --- १४२
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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