________________
तल्लीन करनेवाली आत्मा की विशुद्ध परिणति या सम्यक् क्रिया ही चारित्र है । साधक ज्यो-ज्यो योगों अर्थात् प्रवृत्तियो का निरोध करता है, त्यो-त्यो उसकी स्व-स्वरूप में तल्लीनता वढती जाती है । योगो का पूर्णतया निरोध ही चारित्र की उपयोगिता है। ज्ञान-दर्शन की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति ही चारित्र है। कपायो और लेश्याओ से योग चचल हो उठते हैं, इन दोनो से निवृत्त होते ही योग-निरोध स्वत ही हो जाता है।
' यद्यपि भावो की विशुद्धि को ही बारित्र कहते हैं, तथापि । उसके आन्तरिक एव वाह्य भेदो से वह पाच प्रकार का है, जैसे किसामायिक-चारित्र," छेदोपस्थापनीय-चारित्र, परिहार-विशुद्धिचारित्र, सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र और यथाख्यात-चारित्र । इनका परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है - , १ सामायिक-जिससे समत्व-योग का या रत्नत्रय का लाभ हो वह सामायिक है। सर्व सावध योगो का त्याग और निरवद्य प्रवृत्ति एव निवृत्ति का सेवन अथवा रोग-द्वेप से रहित
आत्मा द्वारा प्रतिक्षण अपूर्व कर्म-निर्जरा से होने वाली प्रात्मविशुद्धि सामायिक है।
यो तो चारित्र के सभी भेद सावध योग विरतिरूप हैं, इस अपेक्षा से सभी भेद सामायिक मे गभित हो जाते है, क्योकि छेदोपस्थापनीय आदि सभी भेदो का आधार सामायिक चारित्र ही है । इसके विना अन्य चारित्रो का जीवन मे अवतरण नहीं हो सकता। तीर्थकर भी सर्व प्रथम सामायिक चारित्र ही ग्रहण करते हैं, अत इसका अस्तित्व सभी तीर्थडुरो के शासनकाल में पाया जाता है। इसे धारण किए बिना कोई भी साधक किसी अन्य चारित्र का अधिकारी नही बन सकता। योग एक चिन्तन ]
[१११