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________________ समान रहा हुआ माया काटेढापन यथाशीघ्र दूर हो जाता है। जिसका लोभ हल्दी के रंग के समान सहज हो उतर जाता है इस तरह के कषाय को सज्वलन कषाय कहते हैं। इस कपाय का अस्तित्व छटे से- दसवे-गुण-स्थान-तक पाया जाता है। ग्यारहवे, बाहरवे, तेहरवे और चौदहवे गुणस्थान मे कपाय प्राश्रव का पूर्ण निरोध हो जाता है। सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कपाय का क्षय होता है, उसके बाद अप्रत्याख्यान कपाय का, फिर प्रत्याख्यानावरण का और अन्त मे सज्वलन कपाय-का क्षय होता है। इसी को अकपायसवर कहते है। , , . , . . . . . . . . - ५ योग-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति व्यापार को अागमो की भाषा मे योग कहते हैं। इनकी प्रवृत्ति शुभ भी होती है और अशुभ भी। अगुभ-प्रवृत्ति को पाप और शुभ प्रवृत्ति को पुण्य' कहा जाता है, परन्तु जैन दृष्टि से दोनोही आश्रव है। योगो की प्रवृत्ति पहले से लेकर तेहरवे गुणस्थान तक जीवो मे रहती है। प्रमत्त गुणस्थानो तक दोनो तरह की प्रवृत्तिया रहती है, किन्तु अप्रमत्त गुण स्थान से लेकर तेहरवे सयोगी केवलिगुणस्थान तक शुभ प्रवृत्ति ही होती है, अशुभ नही। चौदहवे-गुणस्थान मे पहुच कर साधक अयोगो केवली बन जाता है, तव तीनो योगो की पूर्णतया निवृत्ति हो जाती है । योग-की पूर्ण-निवृत्ति ही सवर है.। सव से पहले अशुभ, योगो से, निवृत्ति पाई जाती है। उसके बाद उत्तरोत्तर गुण-स्थानो मे शुभ योगो से भी निवृत्ति होती जाती है। योग-निवृत्ति ही सवर है। यह सवर ही ध्यान की एकग्रता का साधक है।, . . . १ पच आसवदारा पण्णत्ता, त जहा-मिच्छत्त, माविरई, पमानो, ' कसाया, जोगा। - - , ठाणाङ्गसूत्र-ठाणा-५, १०२] [-योग । एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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