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________________ किन्ही विशेष उपायो से हट जाता है, वह मान इसी कोटि का होता है। जैसे चलता हुआ बैल जव मूत्र करता है, तब धरती पर टेढीमेढी लकीर पड़ जाती है। उसके सूख जाने पर या उस लकीर पर वायुवेग से धूल गिर जाने पर जैसे उसका टेढापन मिट जाता है, वैसे ही जिस माया या वक्रता को कुछ परिश्रम से दूर क्यिा जा सकता है, वह माया इस कपाय की कोटि मे मानी जाती है। काजल का रग या खजन (गाडी के पहिए का काला तेल) का रग जिस शरीर पर या वस्त्र पर चढ जाता है, वह रग फिर कठिनाई मे ही हटता है। वैसे ही लोभ भी जाव को जव अपने रग मे रग देता है, तब वह लोभ का रग जल्दी तो नही, अनेक उपायो से अवश्य उतर जाता है। जब इस लोभ कषाय का क्षय या उपशम होता है, तब प्रत्याख्यानावरण कपाय का प्राश्रव निरुद्ध हो जाता है। यह भी पाशिक कषाय-सवर माना जाता है। सज्वलन कषाय की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश दो मास, एक मास, एक पक्ष और अंतर्मुहुर्त की है। इसके उदय से जीव देवगति के योग्य-कर्मों का वध करता है। इस कषाय की उपस्थिति में वीतरागता की अनुभूति नहीं होने पाती । सज्वलन कषाय का स्वरूप इस प्रकार है सज्वलन कपाय वाले साधक का क्रोध पानी मे खीची हुई लकीर के समान होता है जोकि सुविचारो से शीघ्र ही शान्त हो जाता है। उसका मान वेत की छटी के समान होता है, जिसको आसानी से नमाया जा सकता है। जीवन मे अनेकान्तवाद के अवतरण से सब तरह की अकड, हठीलापन एव दुराग्रहो से उत्पन्न हुई अहता क्षण भर मे विशीर्ण हो जाती है। जिसमे ऊन के धागे के योग : एक चिन्तन ] [१०१
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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