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________________ सुरक्षित रखता रहा, हिंस्र जन्तुग्रो से, डास-मच्छर, कीडी-खरमल आदि क्षुद्र प्राणियो से इसे हानि नही पहुचने दी, उत्पन्न होने वाली विविध व्याधियो, प्रातको, परीपह उपसर्गों से बचाने का उपाय करता ही रहा, किन्तु अब मैं अन्तिम श्वास तक इस शरीर के मोह-ममत्व से अलग होता हूं, शारीरिक मोह का पूर्णतया त्याग करता हूं । अब यह पुराना झोपडा धराशायी होनेवाला है। "मेरा मरण शीघ्र हो।" इस तरह काल होने की आकाक्षा न करता हुआ, अनित्य आदि बारह प्रकार की भावनाप्रो मे विचरण करते हुए सयारे को सफल करूं। सलेखना-पूर्वक आमरण अनशन पर मुझे दृढ श्रट्ठा है, श्रा के अनुरूप प्ररूपणा है, दोनो के अनुरूप सयम की आराधना तथा सथारे की पाराधना करना ही मेरे जीवन का परम लक्ष्य है। जब मेरा सथारा निरतिचार सीझेगा, तभी मैं अपने को कृतार्थ समझूगा । अब जड-चेतन प्रादि पदार्थों से मेरा कोई सवद नही, हसी-मजाक, विकथा-प्रमाद आदि विकारी वातावरण से दूर रहकर जिनवाणी, तत्त्वज्ञान एव बोध कथाप्रो से अपने को भावित करूं, गुरुदेव मुझे धर्म-शिक्षा, उपदेश देते हुए मेरे भावो को मगलमय एव कल्याणमय बनाकर आराधकता के स्तर पर पहुचाकर नमस्कार-मत्र का स्मरण कराते हुए मेरा सयारा सीझने का आशीर्वाद प्रदान करें। मारणान्तक सलेखना करने का पाठ .__ अपच्छिम-मारणतिय-सलेखना-झूसणा-आराहणा । पोषधशाला पु जी-पु जी ने उच्चार-पासवण भूमिका पडिलेही पडिलेहीने, गमणागमणे पडिक्कमी-पडिक्कमीने, दर्भादिक सथारो' सथरीसथरीने, दर्भादिक सथारो दुरूही-दुरूहीने, पूर्व तथा उत्तर दिशि योग एक चिन्तन ] (२२९
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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