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________________ ग्रात्मा तो प्राणी मात्र मे विद्यमान है । ग्रन्य श्रात्माग्री के प्रति करुणा होनी चाहिये, किन्तु वही सब कुछ है, वही हमारा उद्धार करेगा, ऐसा भक्ति-मार्ग जैन धर्म को स्वीकार्य नही है । हमने जब भी भगवान की भक्ति को है इसी दूसरे मार्ग से की है, यही कारण है कि हमारा अभी तक उद्वार नही हो सका । जब तक हम स्वयं कुछ नही करते, तब तक हमारा उद्वार नही हो सकता, मुक्त होने के लिये हमारी सहायता कोई नही कर सकता | भगवान के गीत गाने से या गुणगान करने से ही हमारा उद्धार नही होगा, भगवान के निर्मल गुणो को अपने जीवन में उतारने से ही हमारा उद्धार हो सकता है । भक्ति के गान से गाने का श्रानन्द तो मिल सकता है, किन्तु हमारे हृदय में प्रभुके गुणो का अवतरण नही हो सकता, गुणा के लिए तो स्वत हो गुणी बनना पडेगा, गायक वनने से काम नही चल सकता। वैसे ही सम्यक्ज्ञान और सम्यक् साधनो द्वारा ग्रात्मोद्धार ही जैन धर्म का मार्ग है । : विरक्तो के क्रोध मे भी जो प्रेम देखता है और ग्रासक्तो के प्रेम मे भी जो क्रोध देखता है वही सच्चा द्रष्टा है । जव भौतिक सुखो मे प्रेम की अनुभूति होने लगती है, तब साधक बाहरी दुनिया को भूल जाता है । जव अन्तरात्मा मे एव धर्म-साधन मे प्रेन हो जाता है, तत्र साधक अपने शरीर तक को भूल जाता है । प्रेम परिश्रम को हल्का और दुख को मधुर बना देता है | भलो से प्रेम करना चाहिए और वुरो को क्षमा करना चाहिए । महामानव का निर्णय सदैव दृढ और अटल होता है, तभी वह ससार को अपने साचे में ढाल सकता है, किन्तु जो अपने लिए नियम नही बनाता उसे दूसरो के बनाये नियमो पर चलना पडता है । जिन्होने अपनी ग्रात्मा को जान लिया है, उन्ही लोगो के लिए 3 १५८ ] [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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