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________________ जिन गुणो द्वारा देवत्व की उपलब्धि हो या दिव्य सपत्तिया प्राप्त हो उन सभी गुणो को देवी सपति कहते है, अथवा उच्च देव जब अपनी स्थिति पूर्ण कर के मनुष्य-लोक मे मनुष्यत्व को प्राप्त करता है तब वह जिन गुणो से समृद्ध होता है उसके स्वाभाविक गणो को दैवी सपत्ति कहा जाता है। जिस मनुष्य मे ये दिव्य गुण होते है, वह विश्व का कल्याण और उद्धार कर सकता है। प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि उक्त दैवी सपत्ति का यथाशक्य सचय करे। इनकी आराधना पालना के लिए किसी भी देश, काल, जाति, सप्रदाय का कोई प्रतिवध नही । इन गुणो को कोई भी व्यक्ति अपने जीवन मे उतार कर अपना 'उद्धार कर सकता है। अत इन गुणो को सामान्य धर्म कहते हैं । विगेप धर्म वह कहलाता है जो देश, वेप वर्ण, जाति, काल सप्रदाय आदि को विवक्षा रखता हो। __जैन धर्म सामान्य और विशेप दोनो से अनुरजित है। सामान्य के बिना विशेप नही और विशेष के विना सामान्य नही दोनो एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं । श्रीमद्भागवत् और गीता दोनो पर श्री कृष्ण का प्रभाव है और श्रीकृष्ण त्याग एव सयम के साकार रूप जन-जन के उद्धारक भगवान श्री नेमिनाथ के उपदेशो से प्रभावित हुए थे, अत उनकी वाणी ने मानवता के समुद्धार के लिये सर्वत्र ऐसे ही गणो का वर्णन किया है जिन पर जैनत्व की स्पष्ट छाप है । प्रस्तुत पुस्तक मे वर्णित ३२ योगो की विस्तृत व्याख्या इसका प्रमाण है। २५६ ] [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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