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________________ लिए प्रयास करता है, किन्तु कभी-कभी उसके सामने कुछ ऐसी विवशताए एव परिस्थितिया आ जाती है जिनसे साधक की साधना प्रतिसेवना के सामने घुटने टेक देती है। प्रतिसेवना के मूल कारण दस है जैसे कि (क) दर्प-अभिमान के वशीभूत होकर अपने साधना-पथ के नियम-उपनियमो की उपेक्षा करना एव निपिद्ध कार्य करना, दर्पप्रतिसेवना है। इससे झूठ भी वोला जा सकता है, किसी को पीडित भी किया जा सकता है तथा किसी पूज्य की अाशातना भी की जा सकती है। (ख) प्रमाद-नशीली वस्तुओं का उपयोग करना, विलासता से, विकथा करने से, कपाय भाव से, अतिनिद्रा से, वर्म-निरपेक्ष जीवन से, असावधानी से, अयतना प्रादि से जो दोप लगते हैं उनका समावेश प्रमाद मे हो ही जाता है। प्रमाद में कोई भी महाव्रत सुरक्षित नहीं रह पाता । प्रमाद सयम को तो दूपित करता ही है, साथ ही ज्ञान एव दर्शन को भी दूपित कर देता है। इसी को प्रमाद-प्रतिसेवना कहा गया है । (ग) अनाभोग-अनजाने मे, विना उपयोग के जिस दोप का सेवन किया जाय वह अनाभोग प्रतिसेवना है। जिस दोप का जान साधक को न हो पर वह हो जाय तो वह दोप इसी कोटि मे समाविष्ट होता है। (घ) प्रातर-जब कोई साधक किसी पीड़ा एव विषम परिस्थिति से अधीर हो जाता है, तव उसे अातुर कहा जाता है। प्रत्येक पातुर की स्थिति भिन्न हुआ करती है। जैसे कि कामातुर व्यक्ति मे न किसी का भय होता है और न लज्जा ही, चिन्तातुर १. निद्द च न वहुमण्णेज्जा। १०] [योग एक चिन्तन -
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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