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________________ 64400 १४. आचार *** 1 जिसका पालन चारो प्रोर को मर्यादाग्रो को ध्यान में रख कर किया जाए वही प्राचार है दूसरे शब्दों में उत्तम जनो द्वारा श्राचरित कार्यों का आचरण करना ही ग्राचार है । ग्राचार पाच प्रकार का होता है । जानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-प्राचार और वोर्याचार । लोक व्यवहार मे जैसे प्रत्येक क्षेत्र के कार्य विभाग मे विशेष जानकारी की ग्रावश्यकता रहती है वैसे ही धर्म - क्षेत्र मे भी विशेष तात्त्विक जानकारी के बिना कोई भी साधक प्रागे नही बढ़ सकता । साधक अध्ययन के द्वारा जो श्रुतज्ञान की अभिवृद्धि करता है वही जानाचार है, अथवा नए-नए ज्ञान की प्राप्ति और प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिये सद् प्रयत्न को ही ज्ञानाचार कहा गया है । 1 सम्यग्दर्शन हठवाद और रूढ़िवाद का विरोधी तत्त्व है । सत्य और असत्य की परख में निश्चय लाने वाला और साधनाके क्षेत्र मे दृढता लाने वाला यदि कोई तत्त्व है तो वह सम्यग्दर्शन ही है । इसकी उपस्थिति मे जीव सम्यक्प्रवृत्ति और सम्यग्निवृत्ति स्वत. ही करने लगता है । जीवादि नवतत्त्वो का ठीक-ठीक ज्ञान तथा तत्त्ववेत्ता की विनय भक्ति एवं सेवा करना ये दोनो सम्यक् - प्रवृत्तिया है । इन्ही सत् - प्रवृत्तियो को 1 सम्यक् चारित्र कहा ' जाता है । ६४ ] [ योग. एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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