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________________ रूप, रस, गध और स्पर्श । इन्द्रियो के विपय अपने आप मे न शुभ है न अशुभ । उन्हे शुभ और अशुभ के रूप में देखना और प्रयोग मे लाना जीवो की अपनी मनोवृत्ति पर निर्भर है। उदाहरण के रूप मे पाखो का विषय रूप है अत प्रांखो का रूप की ओर जाना स्वाभाविक है । विषयी जीव जब किसी सुन्दर रूप को देखता है तो वह पागल होकर उसके चारो ओर भटकने लगता है, उसी रूप को जव एक दृढ निश्चयी साधक देखता है तो वह उस रूप के पीछे छिपे मल, मूत्र रक्त-मांस, मेदा, अस्थि आदि अंशुचि पदार्थो को देखता हुअा 'भीतरी भगार भरी ऊपर ते कली है।" की भावना भाता हुआ उसी रूप को अशुभ समझ कर उससे विरक्त होकर पाखे बन्द करके प्रात्म-अवस्थित हो जाता है। जो इन्द्रियों के विषय मिथ्यात्व, अज्ञान एवं असंयम के पोषक हैं, या राग-द्वीप के सवर्वक हैं, संयम-मर्यादा के गोषक हैं, वे सब सासारिक विषय कहलाते हैं, उनका संग वर्जनीय है। विषय और विषयों के सभी साधन मोह-वर्धक होने से परिवर्जनीय है, अत: पहले उन के स्वरूप और दुष्परिणामो को सम्यग्ज्ञान से जाने, फिर उनके सग का परित्याग करे । विपयो से परिचय न वढाए, उनको पाने के लिए कभी इच्छा न करे। यही संग-परित्याग है। - - जो तीर्थङ्करो की दिव्य ध्वनि है, श्रमण-निर्ग्रन्थो के अन्त - करण से निकले शब्द हैं, गुरु के मुखारविन्द से निकली आज्ञावाणी है, अथवा जिस शब्द को सुनकर मानसिक विकार शान्त हो जाए, ज्ञान, दर्शन और चारित्र, की वृद्धि हो, वह शब्द सांसारिक विपय नही है। आगम-शास्त्रो का अवलोकन, श्रमण-निर्ग्रन्थो के दर्शन, निविकारता पूर्ण देखना, देव-दर्शन, उपकरणो की विधिपूर्वक प्रति-लेखन करना, अहिंसा भाव से और शुभ ध्यान से १९८] [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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