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________________ वैसे ही सामान्य प्रायश्चित्त से भारी दोपो से मुक्ति मिलनी सर्वथा असम्भव है, अत दोप के अनुरूप ही प्रायश्चित्त होना चाहिये । (ख) श्रणुमाणइत्ता - जिस जिस अपराध का प्रायश्चित्त थोडा आए, उस-उस अपराध की आलोचना करना या अपने कुतर्क के श्राधार से अपराध को बहुत छोटा करके बताना भी आलोचनाविषयक महान् दोष है । (ग) ज दिट्टू - जिस अपराध को प्राचार्य ने देख लिया या जान लिया है, उसी की ग्रालोचना करना, गेप को छिपा लेना भी आलोचना-दोप है । (घ) वायरं - बड़े-बड़े अपराधो की श्रालोचना कर लेना श्रीर छोटे-छोटे अपराधो की आलोचना न करना भी आलोचनादोप है । (ड) सुहुमं - छोटे-छोटे अपराधो की आलोचना करना । ऐसा केवल इस दृष्टि से किया जाता है कि लोग यह समझे - 'जो व्यक्ति छोटे-छोटे अपराधो की आलोचना कर लेता है, वह बडे अपराधो को कैसे छिपा सकता है ? इस प्रकार की कपटपूर्ण आलोचना करनेवाला व्यक्ति ग्रालोचना का अधिकारी ही नही रह जाता । (च) छिन्नं - ग्रधिक लज्जा के कारण अस्पष्ट शब्दो मे ग्रालोचना करना, जिससे सुनने वाले को सुनने और समझने मे दिक्कत आए, यह भी आलोचना दोष है । (छ) सद्दालु - श्रालोचना करते समय ज़ोर-ज़ोर से बोलना, जिस से कि आचार्य के अतिरिक्त दूसरे लोग भी सुन सकें, यह भी आलोचना-दोप के अन्तर्गत है । १८ ] [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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