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________________ नो कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्टयाए तवमहिद्विजा, अर्थात्-इह लौकिक सुखो के लिये तप न करे। स्वर्गादि के सुखो की प्राप्ति के लिये भी तप न करे। यश, कीति, वर्ण शब्द और श्लोक के लिये भी तप न करे। अब प्रश्न होता है कि यदि साधक उपर्युक्त कारणो से तप न करे तो फिर किस उद्देश्य से तप करे ? अन्ततोगत्वा कोई न कोई उद्देश्य तो साधक के सामने होता ही है। बिना उद्देश्य के कोई भी किसी कार्य मे प्रवृत्ति नहीं करता। अरिहन्त भगवान तप के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं -- । नन्नत्य निरट्ठयाए तवमहिद्विजा केवल कर्मो की निरा के लिये ही तप करना चाहिये। इसी से वास्तविक मोक्ष-सुख एव आध्यात्मिक सुख की उपलब्धि होती है । जो लोग सासारिक सुखो की आगा से तप करते है, उनकी सुख-पाशा यथासम्भव पूर्ण हो ही जाती है, किन्तु वे निर्वाणसुख प्राप्त न करके ससार-चक्र मे ही परिभ्रमण करते रहते हैं । 'तप से राज और राज से नरक' की उक्ति को ऐसे लोग ही चरितार्थ करते है। भगवान महावीर ने न स्वय मिथ्या तप की साधना की और न दूसरो को मिथ्या तप का मार्ग बताया है। उन्होने राजसी और तामसी तप का मुमुक्षुप्रो के लिये निषेध किया है। केवल सात्त्विक तप करने के लिये ही प्रेरणा दी है। इसी को दूसरे शब्दो मे अनिधितोपधान तप कहा गया है। अनिश्रितोपधान शब्द का "किसी दूसरे की सहायता के विना तप करना" यह अर्थ भी सुसगत है । यही तप समाधि-जनक तथा सब तरह के विकारो को नष्ट करने वाला है। इसी तप से साधक परमात्म-पद की प्राप्ति कर सकता है। योग . एक चिन्तन ] [ २७
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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