SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महत्त्व को गिरा देता है । सथारे में भी कुछ ऐसे दोष है जो मान____सिक दुर्वलता से लग जाते हैं । प्रमाद दोषो के लिए मार्ग खोल देता है । सथारे मे लगने वाले दोप निम्नलिखित हैं. १.- इहलोकाशंसा-प्रयोग-मनुष्य-लोक विषयक इच्छाए करना, जसे कि "मैं अगले भव मे राजा, मत्री, सेठ या प्राचार्य व " अंथवा मित्रो पर या पुत्रादि पर स्नेह बधन रखना दोष है। . २. परलोकाशंसा-प्रयोग-परलोक-विषयक इच्छा रखनाजैसे कि "मैं परलोक मे इन्द्र बनूं, या 'उच्च देव बनू' ऐसी चाहना रखना, दोप है। , . . । __ ३ जीविताशसाप्रयोग-पूजा-सत्कार आदि विभूतिया देख कर उनके लालच मे आकर अधिक जीने की इच्छा करना। ... ४ मरणाशसा-प्रयोग-सेवा-सत्कार न. देखकर, प्रशसा . आदि न देखकर, भूख-प्यास, वेदना आदि से पीड़ित होकर,-किसी को पास,पाते न देखकर, उद्वन्ग के कारण शीघ्र मरने की चाह करना दोष है। ५.. काम-भोगाशसा-प्रयोग-दृष्ट या अदृष्ट काम-भोगो की कामना करना, अथवा सयम और तप-त्याग के बदले किसी भी तरह की भोग-सामग्री की चाह करना दोप है। यद्यपि सारे के समय वचन और काय से ऐसी कोई क्रिया नहीं की जाती, तथापि केवल मानसिक भावो को लक्ष्यों मे रखकर सथारे मे दोप लग जाने की सभावना रहती है, अंत सब प्रकार के दोपो से सावधान रहना ही साधक का कर्तव्य है। संखेलना-विधि । । विधि से किया हुआ कोई भी कार्य अवश्य सफल हो जाता २२६ ] [योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy