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________________ धर्माचरण के फलरूप मे भौतिक सुख-समृद्धि की कामना भी नहीं करनी चाहिये। ३ निविचिकित्सा-सम्यग्दृष्टि कभी भी धर्मफल के प्रति सदेह नहीं करता और न ही किसी जड चेतन की अवहेलना करता है और न ही उनसे घृणा करता है तथा उनकी निन्दा भी नहीं करता। ४ अप्टि -विभिन्न धर्मावलम्बियो की विभूति देखकर जो मोह उत्पन्न होता है उसे मूढता कहा जाता है । मिथ्यादृष्टियो की प्रगमा एव स्तुति करना उन्हे पुरस्कार देना ये सब मूढता के ही परिणाम है । सम्यग्दृष्टि अपने जीवन में कभी भी. मूढता नही श्राने देता। • मूढता तीन प्रकार की होती है लोक-मूढता, देव-मूढता और पापण्ड-मूढता । नदी स्नानादि में धार्मिक विश्वास करना लोक-मूढता है । राग-हेप के वशीभूत हुए देवो की उपासना करना देव-मूढता है और हिंसा आदि पाप-कार्यो मे प्रवृत्त साधुनो की । सेवा-सुश्रूषा करना पापण्ड मूढता है। ५ उपहण-सम्यग्दर्शन की पुष्टि करना, धर्मात्मानो का या श्री-सघ-सेवियो का उत्साह बढाना उपवृ हण है। कहीं-कही उपबृहण के स्थान पर उपगूहन शब्द भी उपलब्ध होता है, जिसका भाव है अपने गुणो का गोपन करना या प्रमादवश हुए किसी के दोपो का प्रचार करना। ६. स्थिरीकरण-धर्म-मार्ग से या न्याय-मार्ग से फिसलते हुए को पुन: धर्म-मार्ग मे स्थिर करना। ४८] [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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