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________________ सकता है जैसे कि--अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । वस्तुत ये चार दोषो को परखने के मापदड है। अबोध अवस्था मे साधक के ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव तप मे जो विपय-कपाय तथा राग-द्वीप के वशीभूत होकर प्रमाद आदि के कारण दोप लगा है वह अनुभव के आधार से परखा जाता है। प्रत्येक दोप के चार-चार स्तर होते है, यह किस स्तर का दोष है ? उसे परख कर जिस स्तर का दोष हो उसकी निवृत्ति उसी स्तर के प्रायश्चित्त से की जाती है। प्रायश्चित्त-विधान का विज्ञ मुनीश्वर ही जान सकता है कि यह दोष किस प्रायश्चित्त से निवृत्त हो सकता है ? जिस से साधक के मन मे सयम-विषयक उत्साह भी बना रहे और दोष भी निवृत्त हो जाए। वह दोष-स्तर या मापदड चार प्रकार का होता है जैसे-राजनीति के दण्डविधान मे न्यायाधीश भी -अपराध के स्तर को देखकर उसी के आधार पर अपराधी को दड देता है, सबसे पहले किसी व्यक्ति के मन मे मारने के सकल्प पैदा होते हैं, उसके बाद उसे मारने के लिए जिन उपायो से मारा जा सकता है उन उपायो या साधनो को जुटाने का प्रयास करना, तत्पश्चात् मारने के सकल्प से लेकर प्रहार करने तक सभी चेष्टायो को तीसरे स्तर मे मानते हैं, प्राण-हत्या हो जाने के अनन्तर प्राणदड, आजीवन कारावास, स्वदेशनिष्कासन इत्यादि कठोर दड दिये जाते हैं । प्राणदण्ड, आजीवन कारावास और देश-निकाला ये तीनो दण्ड दोष के स्तर पर ही आधारित होते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र मे भी साधक के दोप स्तर को देखकर उसे प्रायश्चित्त दिया जाता है । दोष-स्तर की परख निम्नलिखित चार रूपो मे की जाती है १. अतिक्रम-जब किसी साधक के मन मे गुरुजनो की आज्ञा एव सघ-मर्यादा के विरुद्ध सकल्प पैदा होते है, वही से दोपो योग एक चिन्तन ] [२०५
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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