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________________ का तीसरे भव को प्रतिक्रम नहीं करता और तीसरे स्तर का श्राराधक सात या आठ भव को अतिक्रम नही करता । रत्नत्रय का प्राराधक सदा के लिए नरक गति से नियंचगति से, दुर्गतिरूप मनुष्यगति से, भवनपति वानव्यतर- ज्योतिष्क, श्राभियोगिक, किल्विषी, परमाधामी, तिर्यग्ज भक, स्त्री, नपुसक और दैवी, इन सब से सवव विच्छेद कर देता है । वह तो केवल उच्चवैमानिक देव बनता है या मुकुल, सुजाति में सब तरह के वैभव से सपन्न महामानव बनता है। जब तक वह सिद्धत्व को प्राप्त नही कर लेता, तब तक इन दो सुगतियो मे ही जन्म-मरण करता रहता है । वह सात भव देव के और प्राठ भव मनुष्य के, इस प्रकार पन्द्रहवें भव मे निश्चय ही सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है । शुद्ध सधारा करने से कर्मो की महानिर्जरा और महापर्यवसान होता है, दुखो की परम्परा समाप्त हो जाती है । यही है आराधक वनने की कल्याण परंपरा | 1 1 योग एक चिन्तन 1 • [ २३३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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