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योग मन्द प्राय ध्यान-योग के अर्थ मे ही अधिकतर प्रयुन हुआ है। महपि पतञ्जलि का योग-दर्गन ध्यान-योग की ही आद्योपान्त व्याख्या है। पतञ्जलि ने योग शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है-"योगश्चित्तवृत्ति-निरोध." अर्थात चिन की विचारघारायो को निरुद्ध कर देना ही योग है। योग की यह व्यास्या ईसा से दो सौ वर्ष पहले की गई थी, किन्तु ध्यानावस्थित माधको की अनेक मूर्तिया हडप्पा औरं-मोहनजोदडो से उपलब्ध हुई है, अत: जात होता है कि व्यान-योग की प्रक्रिया से उस काल का मानव भी परिचित हो चुका था जिसे आज के ऐतिहानिक एवं पुरातन्त्रवेत्ता प्रागैतिहासिक काल कहते है।
श्री कृष्ण का कान ईसा से ३००० वर्ष पूर्व माना गया है, कुछ ऐसे विद्वान् भी है जो श्रीकृष्ण को २२००० वर्ष पूर्व का महापुरुष स्वीकार करते है। उन्होंने गीता मे साक्ष्य योग कर्म-योग भक्ति-योग अदि शब्दो का उल्लेख किया है। मालूम होता है श्री कृष्ण के समय तक योग शब्द पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुका था। श्री कृष्ण ने योग शब्द के मुन्यत दो अर्थ किए है-"योग. कर्मसु कौरालम्"-कर्म करने मे कुगलता ही योग है और "समत्व योग उच्यते'-समता की साधना ही योग है। . . - - श्री कृष्ण पर भगवान् नेमिनाथ का प्रमाव चाहे सर्वमान्य न हो, परन्तु जैन सस्कृति को अवश्य मान्य है, क्योकि समवायांग सूत्र मे प्रतिपादित "समदिट्ठी" शब्द उस समत्व का ही प्रतिपादक है जिसे श्री कृष्ण ने योग कहा है। - योग गब्द का कम-कौशल अर्थ भी जैन सस्कृति को मान्य प्रतीत होता है, क्यो क यहा मन, वचन और शरीर के कार्यव्यापारी को योग माना गया है। मन के कार्यव्यापार को, वचन वारह]
[ योग । एक चिन्त