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________________ है, ऐसी पवित्र दृष्टि रखने वाला साधक ही दर्गन-सम्पन्न कहलाता है। __ (च) चारित्र-सम्पन्न-उत्तम चारित्र वाला साधक अपने चारित्र को शुद्ध रखने के लिए दोषो की आलोचना करने हेतु स्वत ही प्रस्तुत रहता है। वह सर्वदा ऐसा आचरण करता है जिससे उसकी साधना सर्वथा शुद्ध एव पवित्र रहे। (छ) क्षान्त-इसका अर्थ है क्षमावान् या शान्तिमान् ।। किसी दोष के अभिव्यक्त होने पर जब गुरुजन उपालम्भ या भर्त्सना देते है तव कोत्र को न उभरने देना-शात चित्त रहना, पालोचना के द्वारा शुद्धीकरण कर लेना, वह अपना कर्तव्य मानता है। शान्त साधक ही साधना-मार्ग पर प्रगति कर सकता है। (ज) दान्त-दान्त का अर्थ है जितेन्द्रिय । जितेन्द्रिय व्यक्ति ही मालोचना कर सकता है। (झ) अमायो-निष्कपट व्यक्ति अनजाने मे किए हए अपने पाप कृत्य को बिना छिपाए प्रकट करते और सरल हृदय से आलोचना करके शुद्ध हो जाता है। (अ) अपश्चात्तापी-आलोचना करने पर जो साधक पालोचना-जन्य पीडा से व्याकुल होकर कभी पश्चाताप नहीं करता, वही अपने सयम की शुद्धि कर सकता है। आलोचना किसके पास करनी चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिये शास्त्र कारो ने अलोचना सुनने योग्य महापुरुष की परख के लिये उसमे दस गुणो का होना अनिवार्य माना है। वे विशेष दस गुण इस प्रकार हैं१४] [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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