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________________ भाव की अभिव्यक्ति होती है। जब सवेग मोक्ष की ओर तीव्रतम हो जाता है तब अनन्तानुवधी क्रोध, मान, माया और लोभ सभी क्षीण हो जाते हैं । सम्यग्दर्शन सदा-सदा के लिए विशुद्ध हो जाता है । जिसका सम्यग्दर्शन निरावरण एव विशुद्ध हो जाता है, वह पाप-कर्म नहीं करता, परिणाम स्वरूप वह उसी भव मे या तीसरे भव मे अवश्य हो मुक्त हो जाता है। सवेग से साधक परमात्म-पद की ओर तीव्रतम गति से दीड लगाता है, वे-रोकटोके आगे बढ़ता रहता है। वह सवेग केवलि-भाषित धर्म के प्रति श्रद्धा की विशुद्धि करता है । गुणो की परम्परा सवेग से प्रारम्भ होती है। परम एव चरम लक्ष्य में उसकी पूर्णता हो जाती है। सवेग का सहचारी गुण निर्वेद है. निर्वेद का अर्थ है वैराग्य । वैराग्य तीन प्रकार का होता है-ससार-वैराग्य, शरीरवैराग्य और भोग-वैराग्य । जव माक्ष की अभिलाषा होती है तब निश्चय ही वैराग्य का होना भो अवश्यभावो होता है। वैराग्य के कारण जव ससार, शरीर एवं भोगो से जीव विमुग्व हो जाता है तब दूसरी ओर सवेग बढ जाता है। अत. सवेग से निर्वेद का विकास होता है और निर्वेद से सवेग का । जिसने केवल एक मोक्ष को ही लक्ष्य बनाया हुया है, वह इधर-उधर के मिथ्यामार्गों में नहीं भटकता। ससोर के अनेक मार्ग हैं, जबकि मोक्ष मार्गे एक है । वध और बंध-हेतुप्रो से पूर्णतया, निवृत्ति ही मोक्ष हैं। सवेग मोक्ष मार्ग का उद्घाटन करता है, अत. चित्तवृत्तियो को निरुद्व कर मोक्ष-पथ पर बढने के लिये साधक सवेग का सहारा लेकर लक्ष्य प्राप्ति मे सफल होता है। योग एक चिन्तन [८३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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