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६. निष्प्रतिकर्मता
शरीर की साज-सज्जा को प्रतिकर्मता या परिकर्मता कहते हैं। उससे निवृत्त होने की साधना ही निप्प्रतिकर्मता या निष्परि कर्मता है |
मार्ग मूलत दो ही हैं एक ससार मार्ग. दूसरा मोक्षमार्ग । दोनो मार्ग परस्पर विरोधी है । जो जिस पथ का पथिक बना हुआ है, वह उसी को अच्छा समझता है । दूसरे पथ के पथिक को अच्छा नही समझता । ससारी जीव देह की दासता से वधा हुआ है, जब कि मुमुक्षु साधक देह का पुजारी नही होता वह अपने जीवन के स्वर्णिम क्षण धर्म-साधना मे ही लगाता है शरीर की साज-सज्जा मे नही ।
मोक्षार्थी की दृष्टि मे शरीर सर्वथा अशुद्ध है, क्योकि यह रज और वीर्य जैसे घृणित पदार्थो के योग से बना हुआ है। माता के गर्भ मे शुचि पदार्थो के ग्राहार से इसकी वृद्धि हुई है । उत्तम रसीले एव स्वादिष्ट पदार्थों का आहार भी इस शरीर मे जाकर अशुचि रूप में परिणत हो जाता है । आख, कान, नाक, मुह आदि नव द्वारा से घृणित मल हो भरता रहता है । जैसे पानी और सावुन प्रादि से अच्छी तरह मल-मल कर धोने पर भी कोयला अपना राग नही बदलता, वैसे ही इस अपवित्र शरीर को पवित्र एव निर्मल बनाने के लिए कितने ही साधनो का प्रयोग क्यो न
योग : एक चिन्तन ]
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