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________________ पहले और दूसरे चारित्र की गति छटे से नौवें गुणस्थान तक है, तीसरे चारित्र की गति छटे और सातवें गुण-स्थान तक है, चौथे चारित्र की गति केवल दसवे मे ही है और पाचवा चारित्र ग्यारवे, बारहवे तेरहवे तथा चौदहवे गुणस्थान मे पाया जाता है । पहले और चौबीसवें तीर्थंकर के युग मे पाच चारित्रो का श्रस्तित्व पाया जाता है, महाविदेह मे और मध्य के वाईस तीर्थङ्करो के युग मे छेदोपस्थापनीय और परिहार- विशुद्धि चारित्र का अस्तित्व नही होता । पाच चारित्रों में से किसी भी चारित्र का पालन करना चारित्र - विनय है । 3 ४. मनोदिनय मनोविनय शब्द के तीन प्रर्थं होते है - मन की विनय, मन से की जाने वाली विनय, विनय से श्रोत-प्रोत मन की प्रवृत्ति । इनमे से पहले अर्थ को छोड़कर शेष सभी अर्थ यहां अभीष्ट हैं । इसके दो भेद है प्रशस्त मनो-विनय और ग्रप्रशस्त मनोविनय । पाप-रहित मन की प्रवृति, क्रोधादि दोषो से रहित मन प्रवृत्ति, कायिक प्रादि क्रियाश्रो मे ग्रासक्ति-रहित मन की प्रवृत्ति, शोकादि रहित मन की प्रवृत्ति, आश्रव रहित मन की प्रवृत्ति, अपने या दूसरे प्राणियो को दण्डित न करने की प्रवृत्ति श्रीर जीवों को भय न उपजाने की प्रवृत्ति मनो-विनय है । सवर, निर्जरा श्रीर पुण्यानुवधो पुण्य का वध प्रशस्त मनो विनय से ही होता है । 44 ५ वचन - विनय ' भाषा के सभी दोपो से अपने को बचाना प्रशस्त वचन ० विनय है । ७२ ] [ योग . एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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