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________________ श्रुतज्ञान की विशिष्टता और उपयोगिता सिद्ध होती है । साधु के मन में श्रुत-ग्रध्ययन की अभिरुचि सदैव बनी रहनी चाहिए, तभी वह साधना के क्षेत्र मे विजयी एव सफल हो सकता है । ऐसी भावना रखता हुआ यदि साधु मन मे, वाणी से और काय से करता है, तो वह महानिर्जरा एव कर्मो का महा पर्यवसान करता है । f 1 दूसरा मनोरथ है धन्य होगा वह दिन जब मैं राग-द्व ेप से अलग होकर और आठ गुणो से युक्त होकर स्थविर कल्पी से जिन कल्पी और जिन क्त्पी से कल्पातीत वनकर एकल्ल विहार प्रतिमा को अगीकार कर विचरण करूगा ? ऐसी भावना रखता हुग्रा साधु कर्मो की महानिर्जग एवं महापर्यवसान करके अपने मनोरथ को सिद्ध करता है । स्थविर-कल्पी साधु को इस स्वर्णिम अवसर की प्रतीक्षा अवश्य करनी चाहिए । इस भावना को पूर्ण करने के लिए उसे सतत अभ्यास करते रहना चाहिये । साधु का तीसरा मनोरथ है-वह दिन मेरे लिये धन्य एवं कल्याणकारी होगा, जब मैं जीवन की अन्तिम घड़ी को विधिपूर्वक सव प्रकार से आहार का, शरीर का, उपधि का तथा पापो का परित्याग कर समाधिपूर्वक पादोपगमन सथारा करके आयु के अन्तिम क्षणों मे शरीर त्याग का दृश्य देखू गा । इस मनोरथ को पूर्ण करने के लिये मन, वाणी और काय से नित्यप्रति सथारा करने का अभ्यास करते हुए, मन से भावना भाए, वाणी से सथारे की प्रक्रिया का समर्थन करे और काय से कुछ क्षणो तक सथारे का अभ्यास करता रहे। इस से भी साधु कर्मो की महानिर्जरा नौर महापर्यवसान करता है । श्रमणोपासक के तीन मनोरथ' - १. स्थानाङ्ग सूत्र का स्थान ३, उद्देशक ४ ॥ योग एक चिन्तन ] [ २१९
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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