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________________ परमानन्द एवं परमशान्ति के अतिरिक्त किसी भी अन्य पदार्थं की अनुभूति न होती हो जो यथाख्यात चारित्र के बल से वीतरागता की चोर वढता ही जाए, वह शुक्लध्यान है । शरीर का छेदनभेदन होने पर भी इस ध्यान में लीन साधक का मन लक्ष्य मे तिल भर भी विचलित नही होता । शुक्लव्यान के चार प्रकार है १ पृथक्त्व-वितर्क - सविचारी । २ एकत्व - वितर्फ - अविचारी । ३ सूक्ष्म क्रिया अनिवर्त्ती । ४ समुच्छिन्न क्रिया- श्रप्रतिपाती । - १ पृथक्त्व-वितर्क - सविचारी - 1 4 जब एक द्रव्य के पृथक्-पृथक् अनेक पर्यायो का नयो की दृष्टि से चिन्तन किया जाता है तब पृथक्त्व पद-सार्थक होता है उसमे पूर्वगत श्रुतज्ञान का प्रालवन लिया जाता है, अत पृथक्त्वपद के साथ ही वितर्क पद का उपयोग किया गया है । वितर्क शब्द का विशेष अर्थ है श्रुतज्ञान । सविचारी का अर्थ है शब्द का चिन्तन करते करते अर्थ का चिन्तन करना, ग्रत शब्द से अर्थ मे और अर्थ से शव्द मे चिन्तन की धारा बदलते रहना, मन, वचन और काय मे से एक योग से दूसरे मे विचारो को सक्रमण करना ही सविचारी कहलाता है । इसमे ध्यान का विषय द्रव्य और उसके पर्याय ही रहते हैं । ध्यान दो प्रकार का होता है- सालंबन और निरालवन । इन्ही को दूसरे शब्दों मे सविकल्प ध्यान और निर्विकल्प - ध्यान भी कह सकते हैं । ध्यान मे ध्येय का परिवर्तन होता भी है और नही भी । जब कोई व्याता - पूर्वघर हो तब पूर्वगत श्रुतज्ञान के १९० ] [ योग एक चिन्तन • L
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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