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________________ (क) प्रम्युत्थान -- गुरु एव बडे सन्तों को सामने में प्रति देखकर खड़े हो जाना । ७० (ख) ग्रासनाभिग्रह - " पधारिये कीजिए, इत्यादि विनीत वचन कहना । इस आसन को अलकृत (ग) आसन प्रदान – बैठने के लिए उन्हें ग्रासन देना । (घ) सत्कार - उनका ग्रादर सत्कार करना । (ङ) सम्मान - उन्हें बहुत सन्मान देना । (च) की तिकर्म - उनकी स्तुति एवं गुणगान करना, सविधि वंदना करना । (छ) अजलि प्रग्रह — उनके सामने हाथ जोडना । । - (ज) अनुगमनता - वापिस जाते समय कुछ दूर तक पहुचाने जाना । वैसे तो शुश्रूषा का अर्थ है सुनने की इच्छा | आज्ञा और प्रवचन सुनने की इच्छा को शुश्रूषा कहते है । शुश्रूपा के स्थान पर सुश्रूषा शब्द का प्रयोग भी होता है, जिसका अर्थ है गुरुजनों की सेवा - भक्ति । जिस विनय का सम्बन्ध सेवा-भाव से हो वह सुश्रूपा विनय है और जिसमे सुनने की इच्छा होती है वह शुश्रूषा करने वाला साधक अपने सेव्य से कभी भी दूर नही रहता । जहा तक उसे सेव्य के दर्शन होते रहे या जहा तक उनकी प्राज्ञा परिचायक शब्द सुविधा पूर्वक सुनने को मिल सके, वहा तक वह उनके [ योग एक चिन्तन ] (झ) पर्युपासनता - बैठे हो तो उनकी उपासना करना । (ञ) प्रतिसंसाधनता - उनके वचनों को श्रद्धा से स्वीकार करना ।
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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