SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १ प्राणातिपात-विरमण-मै जीवन भर के लिए किसी के प्राणो का अपहरण नही करू गा, भले ही वह जन्तु छोटा हो या वडा, अस हो या स्थावर, अपराधी हो या निरपराधी, शत्रु हो या मित्र, मानव हो या मानवेतर, आर्य हो या अनार्य, सब को अपनत्व दृष्टि से, दिव्य दृष्टि से या समान दृष्टि से देखूगा। उपसर्ग देने वाले को भी दिव्य दृष्टि एव शान्त दृष्टि से देखना किसी का भी मन मे बुरा चिन्तन न करना, प्राणातिपातविरमण व्रत है। २ मषावाद-विरमण-सभी प्रकार के छोटे - बडे झूठ से विरक्त होना, न अपने लिए झूठ बोलना, न दूसरे के लिए झूठ बोलना और न उभय पक्ष मे झूठ बोलना, असत्य से अपने आप को हटाकर सत्य के अखड प्रकाश मे लाना मृषावाद विरमण है। ३. अदत्ता-दान-विरमण-चोरी के छोटे-बडे सभी भेदो से अपने को पूर्णतया मुक्त करना । भला जो अपने पास रही हुई उपधि का भी त्याग करता है, वह दूसरे की उपधि पर ललचायमान होकर उसे ग्रहण करने का प्रयास क्यो करेगा ? ४ भैथुन-विरमण- सब प्रकार के छोटे-बड़े मैथुन के भेदो से विरक्त होना । जव आहार और शरीर का सर्वथा त्याग कर दिया जाय तब मैथुन मे प्रवृत्ति हो ही नही सकती ? ५. परिग्रह-विरमण-सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थो, स्वजनो एव परिजनो के ऊपर मोह का त्याग करना । 'परिमाण में और मूल्य मे छोटा या बडा किसी भी प्रकार का परिग्रह न रखना या किसी पर मोह-ममत्व न रखना परिग्रह-विरमण कहलाता है। योग' एक चिन्तन [ २१५
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy