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________________ बाहर जा रहा हो तो अन्य कार्यो में वृद्धि न करे। जब स्वाध्याय भूमि में जाना हो, स्वटिल भूमि में जाना हो, किसी रुग्ण के लिये श्रपच अनुपान यादि लाने हो या विहार करना हो, इत्यादि विशेष कारणों से माधु बाहर जा भी सकता है, जैसे राष्ट्रपति का प्रोयोचना कन्या या कुलाङ्गना का विना प्रयोजन के इधर-उधर घूमना-फिरना गोभाजनक नही होना, इससे लोगो पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता बंसी ही स्थिति साधु की भी होती है । उपाश्रय में रहते हुए जैसे माधु सार्वभौम महावतो की रक्षा पांच समितियो और तीन गुप्तियो से करता है वैसे ही उपाश्रय मे बाहर भी अपने व्रतो और समितियों की रक्षा करने का स्वर उसका कर्तव्य बन जाता है । अत बाहर जाते समय साधू ऊचे से ग्रावश्यकी शब्द का उच्चारण करे। यह संचि कि मैं गुरु की या भगवान की माक्षी से श्रावश्यक कार्य के लिये बाहर जा रहा हूं, विना सत् प्रयोजन के नही । यही इसका भाव है । '२ नैधिकी सामाचारी - आवश्यकी का प्रतिपक्ष नेपेधिकी है । जब साबु कार्य से निवृत्त होकर उपाश्रय मे प्रवेश करे तब उसे नषेधिक शब्द का उच्चारण करना चाहिए अर्थात् मैं उस श्रावश्यक काय से निवृत हो चुका हू, जिस के लिये मैं बाहर गया था । यदि प्रवृत्ति करते समय मेरे से ग्रकरणीय कार्य होगया हो तो मैं उसका निपेध करता हू, अर्थात् अपने आपको उससे दूर करता हू, श्रत जाती बार श्रावस्सही श्रावस्सही कहना चाहिए और उपाश्रय मे प्रवेश करते समय ऊचे स्वर से निस्सही - निस्सही कहना चाहिए । ऐसे न कहने पर साधु रत्नत्रय का विराधक माना जाता है । गमन-ग्रागमन के समय उसका लक्ष्य- पवित्र एव सत्य होना चाहिए। इसी कारण से इन दो सामाचारियो का निर्देश किया गया है। १६० ] [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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