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________________ २. मार्दव-चित्त मे सुकोमलता और वाह्य व्यवहार मे नम्रवृत्ति । का होना मार्दव है। अभिमान की सभी वृत्तियों का विनाश कर देना ही मार्दव है। ३. प्रार्जव-विचार, भाषण और व्यवहार की एकता ही प्रार्जव • अर्थात् निष्कपटता है। ४ निलो मता-धर्म के साधन एव देह श्रादि पर भी असक्ति न ' रखना निर्लोभता है। " शुक्लध्यान की चार अनु क्षाए१ अनन्तवत्तिता-भव-परम्परा की अनन्तता का चिन्तन करना कि यह जीव अनादि काल से समार मे चक्कर लगा रहा है, चार गतियो मे निरन्तर विना विश्राम के परिभ्रमण करते-करते धर्म के अभिमुख नही हो पाता है। इस प्रकार का विचार करना। २. विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुयो के विविध परिणामों पर विचार करना कि सभी भौतिक-सामग्री अशाश्वत है, क्या यहां के और क्या देवलोक के कोई भी स्थान शाश्वत नहीं है। ३. अशुभानुप्रक्षा-ससार की अंशुभ पर्यायो का चिन्तन करना, , जैसे कि एक अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति मर कर अपने ही कलेवर मे कृमि के रूप से उत्पन्न हो जाता है, यह है ससार की अशुभता। ४. अपायानुप्रेक्षा-विषय-कपायों से या राग-द्वप से होने वाले दुष्परिणामो से जीवो को जो कुछ फल भोगना पड़ता है, वह अपायानुप्रेक्षा है । [ १९३ योग । एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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