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________________ पूर्वक स्वीकार करना प्रायश्चित्त है। कारावास, जुर्माना और काय परिक्लेश अर्थात् सजा सरकार देती है और प्रायश्चित्त गुरु देते है । दण्ड से दण्डनीय का सुधार हो या न भी हो, किन्तु प्रायश्चित्त से अन्त करण की शुद्धि अवश्य होती है। प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं, जैसे कि-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय प्रायश्चित्त, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल और अनवस्थाप्य इनका विवरण इस प्रकार है।। १ पालोचना-मूलगुण मे या उत्तरगुण मे लगे हुए दोप की निवृत्ति के लिये गुरु के समक्ष निष्कपट हृदय से पालोचना करना प्रायश्चित्त है। जिम दोष की निवृत्ति अालोचना करने मात्र से हो जाए उसे आलोचना कहते है। अपनी भूल या गलती को पश्चात्ताप पूर्वक कहना ही इसका प्रयोजन है। इससे प्रात्मशुद्धि होती है और पुन: दोष न करने की वृत्ति जागृत होती है। २ प्रतिक्रमण-जिस दोष की निवृत्ति प्रतिक्रमण करने से हो जाए उसके अनन्तर आलोचना करने की आवश्यकता न पडे, उस प्रायश्चित्त को प्रतिक्रमण कहते हैं । 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड" कहते हुए दोषी जीवन से लौट कर अपने साधक जीवन मे आना प्रतिक्रमण है। ३ उभयप्रायश्चित्त--जिस दोष की निवृत्ति पालोचना और प्रतिक्रमण दोनो से हो वह उभय प्रायश्चित्त कहलाता है। ४. विवेक-शय्यातरपिण्ड, अप्रासुक, अनेषणीय, अकल्पनीय आहर-पानी सेवन करने का त्याग करना, अथवा 'भविष्य मे मुझ से ऐसी भूल नही होगी, या अब मैं भूलकर भी ऐसी भूल नही करु गा" इस प्रकार की प्रतिज्ञा का मूल विवेक है, प्रत. इसे विवेक-प्रायश्चित्त कहा जाता है। - ५. व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना, इन्द्रिय-चेष्टाओ को रोक योग : एक चिन्तन ] [२०३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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