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पर सयारा करना चाहिये । इस मे सारे के सभी नियमो का पालन सामान्यतया करना ही होता है ।
१६ इगिनीमरण - इस सथारे मे सामान्य नियम वे ही है जो भक्त - प्रत्याख्यान के है, किन्तु कुछ विशेष नियम भी है जो कि पहले मे नही है । इसमे मर्यादित या निश्चित की हुई भूमि से बाहर न जाने का प्रण करना होता है । इसमे सथा रेवाला अपनी शुश्रूषा स्वय कर सकता है, किन्तु दूसरे से अपनी सेवा नही करवा सकता । इसकी श्राराधना वसति मे भी की जा सकती है और वसति से बाहर भी। इसमे मर्यादा क्षेत्र के प्रदर हलन चलन किया जा सकता है । यह पहले की अपेक्षा अधिक कठिन है ।
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१७ पादपोपगमन - कटी हुई वृक्ष की शाखा की तरह किसी एक ही स्थान मे पडे रहना । यह सथारा प्राय उपाश्रय से बाहर गिरि-कदरा यादि एकान्त स्थान मे किया जाता है । इस संचारे वाला अपने शरीर की शुश्रूषा सेवा, देखभाल न स्वय करता है और न दूसरो से करवाता है ।
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सलेखना पूर्वक भ्रामरण अनशन का हेतु शरीर के प्रति निर्मोह एव निर्ममत्व होना है। जब तक देह का ममत्व रहता है तव तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहता है । जब देह के ममत्व से मुक्त हो जाता है तब मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जाता है । इसका मुख्य लक्ष्य श्रात्म-लीनता है ।
प्रनाचरणीय भाव
আর
उपर्युक्त सथारे के किसी भी भेद मे दोषो से सर्वथा अछूता रहना ही व्रत का महत्त्व है। किसी तरह का भी प्रमाद व्रत के योग एक चिन्तन ]
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