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यद्यपि मानवता की सीमा नही बाधी जा मकती, तथापि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि देखने में दो हाथो वाले सभी प्राणी मानव ही हैं, किन्तु केवल मानव- योनि में जन्म लेने मात्र से मानव मानव नही बन जाता, मानव वह है जो उत्तरोत्तर अपनी मानवता का विकास करता है । मानव-धर्म क्या है ? इस सन्दर्भ मे विचारक ऋषिपयों ने मानव धर्म के ऐसे तीस लक्षण बताए है, जो मानवता के विकास की परख हैं, जिनसे वास्तविक मानवता का परिचय प्राप्त होता है, जो मानवता के विकास की कसौटी हैं. जैसे कि
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१. सत्य
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जिसका अस्तित्व पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा वही सर्वदा एक रूप रहने वाला तत्त्व सत्य है । सत्य भी आत्मा की तरह अमर तत्त्व है। वह आत्मा के भीतर भी है श्रीर बाहर भी । प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते है - वहिरंग और अतरग । इन्ही को दूसरे शब्दो मे द्रव्य सत्य और भाव- सत्य भी कह सकते हैं । द्रव्य सत्य का प्रकाश घुन्धला होता है और भाव सत्य का प्रकाश प्रत्युज्ज्वल होकर सर्वत्र फैलता है । सम्यग्दृष्टि जीव सत्य' की आराधना दोनों तरह से करता है । उसके मन में भी सत्य का वास होता है, मस्तिष्क मे, वाणी मे' तथा कार्य में भी सत्य निवास करता है । जब ग्रात्मा सत्यमय हो जाता है तव वह परमात्मा' बन जाता है । जीवन के भीतर सत्य का जितना प्रकाश होगा, जीवन उतना ही मान्य एंव प्रामाणिक होगा, अंतः सत्य मानवता का प्रथम लक्षण है ।
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[ योग'. एक चिन्तन