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मानव-धम
यद्यपि जैनागमो मे मानवता के लक्षणो की विस्तृत व्याख्या की गई है, फिर भी हम यहा श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में दिए गए मानवता के लक्षणो का परिचय दे रहे है, केवल इस उद्देश्य से कि हम यह जान सके कि अन्य सम्प्रदायो ने भी मानवता के उन्ही लक्षणो का निर्देश किया है जो जैन शास्त्रो मे वर्णिन है।
यह निश्चित है कि . मानव सव प्राणियों में श्रेष्ठ है, क्योकि जो विशेषताएं मानव मे पाई जाती है उनकी प्राप्ति अन्य प्राणियो मे सर्वथा असम्भव है। जीव परमपद की प्राप्ति जब भी करेगा, तव मानवता को ग्रहण करके ही कर सकता है। यही कारण है कि मानवता को दुर्लभ कहा गया है।
मानवता का अर्थ है मानव-धर्म । जो व्यवहार सब के लिये हितकर एव परम प्रिय हो वह धर्म है। उचित-अनुचित का विचार करके प्राणि-मात्र का हित सम्पादन करनेवाली चित्तवृत्ति ही धर्म है, अथवा वस्तु का जो भी गुण या स्वभाव है, वह धर्म कहलाता है। स्वकर्त्तव्य भी धर्म की परिधि मे आ जाता है। धर्म-विशिष्ट मानव ही मानव है, अत. मानव वडा नही है, अपितु मानव मे रही हुई धर्म-भावना अर्थात् मानवता ही बड़ी है। योग . एक चिन्तन ]
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