Book Title: Yog Ek Chintan
Author(s): Fulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 277
________________ २२, श्रवण जीवन-उत्थान के शिक्षा-सूत्र सुनना, प्रभु-वाणी एव सन्तवाणी सुनना, गुरुजनो के उपदेश सुनना जिनके श्रवण से सम्यक ज्ञान के पालोक से प्रात्मा पालोकित हो मके वैसे शिक्षा-सूत्र एव सूक्तिया सुनना मानवीय कर्तव्य है । सुशिक्षामो के सुनने से मानवता पनपती है-पल्लवित, पुष्पित एव फलित होती है, विकसित होतेहोते वह मानवता समीम से असीम हो जाती है। मानवेतरो में ऐसी श्रवण-गक्ति नहीं पाई जाती है। २३. कीर्तन 10 परम श्रद्धेय रूप परमेष्ठी, धर्माचार्य आदि के गुणों की प्रगसा करना, उनका पुनीत नाम लेकर दूसरो के सामने स्तुति करना, उनका यशोगान करना, जिस से सब लोग धर्मलाभ और पुण्यानुवन्धी पुण्यसे लाभान्वित हो जाएं, इस प्रकार की ध्वनि-प्रक्रिया को कोतन कहा जाता है। कीर्तन करना भी मानवीय भावना है मानवेतर प्राणी कीतन करना नहीं जानता। अत कीर्तन भी मानवता का अभिन्न अंग है। प्रगसा के अनेक कारण होते है, जैसे कि स्वार्थसिद्धि के लिये की गई प्रगसा से दूसरो के हृदय मे दुर्वासना बढती है। लोककार्यार्थ की गई प्रशसा से अभिमान बढता है। दूसरे की उन्नति के लिये की गई प्रशसा मे उत्साह वढता है और निष्काम प्रशसा से श्रंय वढता है । अत गुणी जनो की स्तुति, प्रशसा एव यगोगान मानव-धर्म है। योग . एक चिन्तन ] [ २४९

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