Book Title: Yog Ek Chintan
Author(s): Fulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 275
________________ .. १८. आत्म-विमर्शन ..---- - प्रत्येक बात के सवध मे सब से पहले अपने मन मे उचित चिन्तन करना । प्रात्म-निणय और आत्म-विश्वास शुभ सकल्पो से ही हो सकते हैं। मानव जिस कार्य को करना चाहता है उस के पास-पास भीतर और बाहर होने वाले लाभ और हानि, स्वल्प लाभ और अधिक लाभ, स्वल्प हानि और अधिक हानि, इन सब बातो के प्रत्येक पहलू पर विचार करना मानवता है। आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से' हानि और लाभ का विचार करके अंत मे आत्म-निर्णय करना मानव-धर्म है १६ संविभाग - सविभाग का मुख्य अर्थ:-है , जीवन उपयोगी वस्तुओ का उचित विभाग एवं उचित वितरण- करना- प्राय ससार मे यह देखने मे पाता है कि मनुष्य राग और पक्षपात के अनुसार ही अन्न-- धन आदि का वितरण करता है। किसी को कम दिया जाता है। और किसी को अधिक । यही विषम व्यवहार कलह का कारण होता है। न्याय नीति के अनुसार वस्तुप्रो का बटवारा करना मानवीय धर्म है। जो उचित मविभाग नही करता वह वस्तुत चोर है। चोर तो वधन, का अधिकारी होता है, मोक्ष का नही । "असविभागी नहु तस्स मोक्खी".-यदि कोई , साधक होकर भी. भोजन-पानी, वस्त्र, स्थान प्रादि का बटवारा उचित, नही करता, स्व-पर का भेद भाव रखकर वितरण करता है वह असविभागी माना जाता है। भले ही वह लोगो के आगे कितना ही उच्च सयमी योग एक चिन्तन ]" [ २४७

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