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भाव-शौच । अपवित्र को पवित्र करना ही शौच की उपयोगिता है। जब अपवित्र द्रव्य को पवित्र करने के लिए अनेक शोधक पदार्थों का उपयोग किया जाता है, उसे द्रव्य-शौच कहा जाता है मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, धूप, साबुन, तेजाब आदि से जो सफाई की जाती है वह द्रव्य-शौच है इनसे भावो की शुद्धि नही हो सकती। जो भावो को पवित्र करनेवाले तत्त्व हैं, उनसे ही
आन्तरिक शुद्धि होती है । मत्र, ब्रह्मचर्य तप,- पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त, क्षमा आदि तत्त्वों से अन्त करण की शुद्धि होती है। वहिरग शुद्धि सश्यता है और अन्तरग शुद्धि सस्कृति । व्यवहार नय की दृष्टि से दोनो प्रकार के शौच उपयोगी हैं, किन्तु निश्चयनय सस्कृति को ही मुख्यता देता है। भावो की पवित्रता ही सस्कृति है, सभ्यता और संस्कृति दोनो शब्द मानवता की बाहरी और भीतरी पवित्रता के ही द्योतक है।
५. तितिक्षेच्छा
. इस शब्द का अर्थ है सहन-शक्ति का उपयोग । जब कभी कोई अनाडी व्यक्ति गाली दे, या लोगो के सामने निन्दा करे, या तिरस्कार करे, उस समय साधक को सहनशक्ति से काम लेना चाहिए। अथवा यदि कोई मार-पीट करके कष्ट देता है, उसे शान्तिपूर्वक सहना चाहिये । कर्म-भोग के रूप मे स्वत उत्पन्न हुए कष्टो को सहन करना भी मानवता का लक्षण है।
राग-द्वेष से तटस्थ रहना समता है और समता ही सहनशक्ति है । अत्याचारी के अत्याचारो को सहना लोक-व्यवहार मे अपराध माना जाता है, उस अपराध से बचने के तीन उपाय हैं२४०]
[ योग : एक चिन्तन