Book Title: Yog Ek Chintan
Author(s): Fulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 267
________________ २. दया दया का अर्थ है निष्काम भाव से प्राणियों की रक्षा करना। रक्षा दूसरे को भी की जाती है और अपनी भी । दयों के भी दो रूप होते हैं, द्रव्य-दयों और भाव-दया। अपने और दूसरो के प्राणों की रक्षा करना द्रव्य-दया है और अपने आपको और अन्य व्यक्ति को पाप-कर्मों से, राग-द्वेष से बचाना भाव-दया है। द्रव्यदया पुण्यबंध का तथा' भाव दया सर्वर और निर्जरों का कारण है। मानवता मे दोनो तरह की दया समाविष्ट है। ३. तप तप का अर्थ है अपने आपको साधना की प्रोग मे तपाना । खाने मे, पीने मे, पहनने मे, बोलने मे, भोगादि मे संतोष रखनाकपायो का शमन और इन्द्रियो का दमन सतोप-वृत्ति से ही होता है । शमन और दमन से मन का निग्रह स्वत: ही हो जाता है। तप भी दो तरह का होता है बहिरंग और अतरग। जिसका प्रभाव शरीर पर या लोगों पर पड़े, वह बहिरग तप है और जिस का प्रभाव आत्मा या मन पर पडे, वह अतरग तप कहलाता है “सम्यग्दृष्टि-सच्चे मानव के लिए दोनो प्रकार का तप उपयोगी होता है। Fe च ४. शौच शुचि और शौच ये दोनो शब्द पवित्र एवं स्वच्छ अर्थ मे प्रयुक्त होते हैं । शौच भो दो प्रकार का होता है द्रव्यं शौच और योग . एक चिन्तन ]

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