Book Title: Yog Ek Chintan
Author(s): Fulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

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Page 271
________________ श्राचरण करन वस्तुत. ब्रह्मचर्यं है । तवेसु वा उत्तमं वमचेरं । सब तपो मे ब्रह्मचर्य को उत्तम कहा गया है, क्योकि तपश्चर्या ब्रह्मचर्य की सिद्धि के लिए की जाती है । ब्रह्मचर्य का पालन मानव ही कर पाता है, अत ब्रह्मचर्य भी मानव धर्म है । · १०. त्याग किसी पाप या वस्तु- विशेष को छोड़ने के अर्थ मे त्याग शब्द का प्रयोग होता है । वह दो प्रकार का होता है, आशिक त्याग और पूर्ण त्याग | इनमे पहला भेद गृहस्थाश्रम मे पाया जाता है और दूसरा सन्यासाश्रम मे । इन को क्रमश श्रमणोपासक वृत्ति और साधु वृत्ति भी कहते हैं । जब साधक लक्ष्य की ओर बढता है तब मार्ग मे श्राने वाले प्रगति के बाधक तत्त्वो को छोड़ता हुआ साधना-पथ पर अग्रसर होता है । त्याग पापवृत्तियो का किया जाता है और पर - पदार्थ का भी । जब एक और साधक चढता है तो दूसरी ओर बहुत कुछ छोड़ता भी है । ग्रात्मा ने जो अपना सबंध पर - पदार्थों से जोडा हुआ है उसको अपने से अलग करना त्याग है। त्याग भी मानव ही कर सकता है ।' ११. स्वाध्याय - Jan जिनः शास्त्रो का अध्ययत करने से सयम एव तप मे प्रवृत्ति हो, अथवा जिन के अध्ययन करने से सुवृत्ति एव सुनिवृत्ति विषयक ज्ञान हो, अथवा उपादेय रूप धर्म के सभी भेदो का तथा हेयरूप पाप के सभी भेदो का ज्ञान हो, अथवा ग्रात्म-तत्त्व का सुनना, जानता, समझना, चिन्तन, मनन करना अथवा ध्यान और समाधि योग एक चिन्तन ] [ २४३ i

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