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अत्याचारी को उपदेशो एव शिक्षाओ द्वारा समझाना, इतने प्रेम भरे शब्दो से उसे समझाना जिससे अपराधी को ऐसा जान पडे कि यह मेरा हितैषी है, सच्चा मित्र है। यदि समझाने पर भी नही मानता तो मौन धारण करले । यदि मौन धारण करने से भी मन मे खलबली मच रही हो तो टल जाने मे ही हित है । इनमे से जिस उपाय से भी मन को शान्ति मिल सके और दूसरे का सुधार भी हो सके वैसा आचरण करना चाहिये, किन्तु स्वय अपराध से अछूता रहे। दूसरे से अपराध छुडाता हुआ व्यक्ति यदि स्वय अपराधी बन जाए तो यह बुद्धिमत्ता नही है, इसे मानवता का विकास नही कहा जा सकता है ।
६. शम
उभरने वाले मानसिक विकारो को उभरने न देना शम कहलाता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहकार ग्रादि विकार मानव को वेचैन बनाए रखते हैं। जिस वार्तालाप से, जिस साहित्य से, जिस वातावरण से किसी भी विकार के भडकने की सभावना हो, उससे अपने को दूर रखना तथा शान्त-उपशान्त एव प्रशान्त रहना शम है । शम हो मानवता है, विकारों से दब जाना मानवता नही ।
७. दम
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जव इन्द्रिया अपने-अपने विषय को ग्रहण करने के लिए दीड लगाना चाहती हो, धर्म-मर्यादा का उल्लघन कर रही हो, पथभ्रष्ट करने के लिए उतारू हो रही हो, तब उन्हे सयम से योग एक चिन्तन ]
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