Book Title: Yog Ek Chintan
Author(s): Fulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 272
________________ के विधि-विधानो को पढ़ कर ज्ञान प्राप्त करना ही स्वाध्याय है। ध्यान के शिखरो पर चढने के उपाय स्वाध्याय से ही जाने जाते हैं । स्वाध्याय अतरग तप है. स्वाध्याय से मन एकाग्र होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है, चारित्र निर्दोप बनता है। स्वाध्याय भी मानव-धर्म है, क्योकि मानवेतर प्राणी स्वाध्याय नहीं कर सकता। १२. सन्तोष __ जितने भी दृश्यमान पदार्थ है वे सव इन्द्रिय-ग्राह्य हैं। जो इन्द्रिय-ग्राह्य पदार्थ हैं, वे सब आसक्ति उत्पन्न करनेवाले हैं । जीवन मे आसक्ति का कम होना, अर्थात् अनासक्ति ही संतोष है। ममत्व की निवृत्ति हो समता है और इच्छाओ का निरोध ही सन्तोप है. सतोप को ही अपरिग्रह कहा जाता है । सनोष से तृष्णा और लोभ ये दोनो स्वत ही नष्ट हो जाते है, । इससे सभी इच्छाए अनायास ही शान्त हो जाती हैं। फिर साधक न अपने को वरिष्ठ समझता है और न दूसरे को कनिष्ठ । सतोपवृत्ति भी मानव के अन्त करण मे ही उत्पन्न हो सकती है, अत सतोप भी मानवता का एक अग है । इससे पाप-प्रवाह स्वतः ही अवरुद्ध होने लगता है। १३. समहक समदर्शी होना । सब को समान दृष्टि से देखना ही समर्शिता है। कचन और काच मे, नगर और वन मे, सुख और दुख मे, जन्म और मरण मे, ऊच और नीच मे, नरक और स्वर्ग मे, हानि और लाभ मे, उदय और अस्त मे, समदर्शी बनकर रहना, शत्रु और मित्र को समान भाव से देखना, त्रस और स्थावर जीवो २४४ ] - [ योग एक चिन्तन

Loading...

Page Navigation
1 ... 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285