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प्रायरिय-उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल गणे य। जे मे केइ कसाया सव्वे तिविहेण खामसि ।। सव्वस्स समणसंघस्स, भगवनो अलि करिय सीसे । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स प्रहयपि ।।
उस के बाद सब जीवो से सिमत खिमावना करते हुए कहे-- मैं सब जीवों को हृदय से क्षमा करता है और वे सब जीव मुझे क्षमा करे, मैं सब जीवो के साथ पूर्ण मैत्री स्थापित करता है, क्योंकि मेरे मन में अब किसी के प्रति वर-विरोध नही रहा।
उसके बाद जो पहले साधु के महाव्रतो में या श्रावक के व्रतो में किसी तरह का कोई दोष लगा हो तो उसकी आलोचना, निन्दना, गर्हणा करके सब तरह से मन के माया-शल्य, निदानशल्य और मिथ्या-दर्शन-गल्य रूप तीनो शल्यो का उद्धरण करके सभी अकरणीय एव अनाचरणीय दुष्कृत्यो को जीवन भर के लिए न मन से करना, न मन से कराना और न मन से समर्थन करना, न वाणी से दुष्कृत्य करना, न वाणी से पाप कराना और न वाणी से पाप कर्म का समर्थन करना, न स्वय काय से पाप-कर्म करना, न काय द्वारा पाप कर्म कराना और न पाप-कर्म 'का काय द्वारा समर्थन करना, इस प्रकार सधारे मे नौ कोटि से प्रत्याख्यान किया जाता है।
यह शरीर मेरे लिए निधान की तरह एव बहुमूल्य रत्नो से । भरे हुए डिब्बे की तरह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, इन्द्रिय और मन के अनुकूल रहा है, यह मेरे लिये सम्मत, अनुमत एव विश्वस्त रहा है । मैं इस शरीर को सर्दी-गर्मी से बचाता रहा, भूख-प्यास से इसकी रक्षा करता रहा, इसे चोर-डाकुमो के प्रहार से २२८ ]
[ योग , एक चिन्तन