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है ? सलेखनाव्रती साधक को सलेखना की विधि का जान होना ही चाहिए । विधि का ज्ञान श्रुतज्ञान से होता है । श्रुतज्ञान देहलीदीपक न्याय को चरितार्थ करता है। श्रुतज्ञान स्व-प्रकाशक भी होता है और पर- प्रकाशक भी । वहे अन्दर भी प्रकाश करता है श्रौर बाहर भी । प्रत्येक कार्य के निष्पादन करने की विधि- अलगअलग है । घट बनाने की विधि अलग है और पट - बनाने की विधि भिन्न है |
श्राध्यात्मिक क्षेत्र में भी साधना के अनेक भेद है । 'जिस साधना से सलग्न रहना हो, उस की आराधना भी विधि से ही की जानी चाहिये । इन्द्रियो और मन को नियन्त्रित करने की श्रीर
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कपायो के निग्रह करने की अनेक विधिया है । जैसे दीक्षा-विधि से दी जाती है और विधि से ही ली जाती है, उसी प्रकार विधि-पूर्वक ग्रहण किया हुआ स्यारा ही जीवन को समुन्नत करने का एक मात्र अमोघ उपाय है । संथारा प्रोषधशाला मे, उपाश्रय मे या किसी एकान्त स्थान मे करना चाहिए ।
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- जब पूर्णतया सथारा- करना हो तब सब से पहले, आमरण अनशन करने के लिए उचित स्थान जो कि सब तरह से निर्दोष हो उसका निरीक्षण करना जरूरी है । मलमूत्र परठने के लिए भी उचित एव निर्दोष स्थान होना जरूरी है। भूमि पर प्रसन बिछा कर पूर्वाभिमुख या उत्तर दिशाभिमुखं चौकडी लगाकर बैठे—'इच्छा' कारण सदिसह भगव, इरियावहिय" का पाठ पढ़े, तस्सुत्तरीकरणेण का पाठ पढे, 'फिर लोगस्सुज्जोय गरे पाठ का ध्यान करे, फिर साधु, साध्वी, श्रावक और श्रीविका चारों तीर्थ से खित खिमावना करें, जैसे कि
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योग एक चिन्तन' ]
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