Book Title: Yog Ek Chintan
Author(s): Fulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
Publisher: Atmaram Jain Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 260
________________ चोरा, मा ण दमगा, माण मसगा, मा ण वाहिय, पित्तिय, कफिय सन्निवाइय विविहा रोगायका परीसहा उवसग्गा फासा फुसति, एवपियण चरमेहि ऊसास-नोमासेहि वोसिरामित्ति कट्टु इस प्रकार शरीर का व्युत्सर्ग करके काल श्रनवकखमाणे विहरामि । इस प्रकार की सहहणा परूवणा, करिए तिवारे फर्सनाए करी शुद्ध, एहवा ग्रपच्छिम मारणतिय-संलेहणा-झूसणा- श्राराहणा ना पच श्रइयारा जाणियच्वा न समायरियव्वा, त जहा ते आलोऊ इह लोगामसप्पोगे, पर लोगाससघग्रोगे, जीवियाससप्पग्रोगे मरणाससप्पोगे कामभोगाससप्पोगे । + समाधि मरण ही सथारा है, अत मरण को कला बनाने के लिये श्रमण संस्कृति मे जीवन के प्रारम्भ से ही अभ्यास करने का सकेत किया गया है क्योंकि मृत्यु कभी भी आ सकती है । मृत्यु से डरने की आवश्यकता नहीं, मृत्यु से भयभीत होना श्रज्ञान का फल है । अज्ञानियो का जन्म-मरण दोनो ही नगण्य हैं । ज्ञानियों का जीवन कलापूर्ण होता है । जीवन का कालमान बड़ा होता है जब कि मरण का समय स्वल्य ही होता है । जीवन भर में धर्म 7 1 कला का विकास जितना करने पाता है उसके अनुसार ही मरणकला का विकास होने पाता है । मरण कला ही प्रमाणित करती है कि इस साधक ने जीवन भर मे धर्म-कला सीखने मे कितना परिश्रम किया है ? इस बात से भी इन्कार नही किया जा सकता कि भगवान महावीर ने जो सन्थारे के विधि-विधान का निर्देश किया है, वह अन्यत्र कही देखने को नही मिलता । रत्नत्रय के प्रारावक तीन प्रकार के होते हैं - उत्कृष्ट आराधक, मध्यम आराधक और जघन्य आराधक । इनमें पहली कोटि का आराधक उसी भव मे परमपद को प्राप्तकर लेता है । दूसरी कोटि [ योग एक चिन्तन २३२ } •

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285