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ही माया - मृपा है । इसका अर्थ है कपट पूर्वक झूठ बोलना । जव भी कपट और झूठ दोनो का त्याग हो गया, तब इस पाप की निवृत्ति स्वय हो जाती है । सथारा करने वाले के हृदय में कपट के भाव आते ही नही है ।
१८ मिथ्या दर्शन - शल्य - विवेक - जिसकी श्रद्धा या विचार मिथ्या एव गलत हो वह सथारा करता ही नही, उसमे सथारे के प्रति प्रीति, रुचि होती ही नही, ग्रत वह मिथ्यात्व श्रनुरजित विचारो को मन मे नही थाने देता । सम्यग्दृष्टि मे तत्व से विपरीत श्रद्धा होती ही नही । सथारे में धर्म की साधना विशेष रूप से की जाती है । अत इस पाप की निवृत्ति भी स्वय हो
जाती है ।
आहार, शरीर, उपधि और अठारह तरह के पापो की निवृत्ति, ससार से विरक्ति और हृदय मे विवेक का होना ही सथारा कहलाता है । संथारा जीवन का परमोत्कर्ष है, सथारा विचार और ग्राचार का परिपक्व फल है । संथारा आराधक बनाने का प्रमोध साधन है । सधारा परमपद को पाने का सीधा मार्ग है, सथारा त्याग की चरम सीमा है । सथारा कर्मजाल से मुक्त होने का सफल उपाय है । सथारा सव तरह की इच्छाओ से निवृत्ति होने का राजमार्ग है। सथारा सब तरह के दुखो से छूटने का श्रेष्ठ साधन है । सथारा पूर्ण से पूर्ण वनने का, ग्रात्मा से परमात्मा बनने का उत्तम साधन है ।
साधु के तीन मनोरथ
साधु सर्वदा यही सोचता है कि कब वह सुअवसर प्राप्त हो, जब मैं जिन वाणी का थोड़ा या वहुत ग्रव्ययन करू । इससे
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[ योग एक चिन्तन
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