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श्रावक सर्वदा यह चिन्तन करे कि कब वह स्वणिम अवसर प्राप्त होगा जव कि मैं न्यायोपाजित परिग्रह को थोडा बहुत श्रुतसेवा मे, प्रवचन-प्रभावना मे, सहधर्मी-वत्सलता मे, निर्धनो की सहायता मे खर्च करू , दान मे लगाता रहं। जिस द्रव्य पर से ममत्व-बुद्धि उठ जाती है, वही द्रव्य दान मे दिया जा सकता है। इस मनोरथ को पूर्ण करने के लिये मैं यथाशक्य नित्यप्रति सचित धन का अधिकाधिक शुभ कार्य मे दान करता रहगा। मन मे उदारता होगी, वाणी मे प्रीति, सम्मान होगा, काय मे दान देने की शक्ति एव व्यवहार होगा। ऐसी भावना भाने वाला श्रावक भी कर्मो की महानिर्जरा एवं महापर्यवसान करता है।
उसका दूसरा मनोरथ है—कव मैं गृहवास का परित्याग करके सत्ताईस गुणो से सम्पन्न होकर साधुवृत्ति को ग्रहण करूगा । साधक को साधना मे आगे वढने की भावना कभी भी नही छोडनी चाहिए। यदि किसी कारणवश आगे न बढ सके तो भावना में दीनवृत्ति भी नहीं आने देनी चाहिए। इस मनोरथ से भी श्रावक महानिर्जरा एवं कर्मों का महापर्यवसान करता है।
उसका तीसरा मनोरथ है-कब मैं पादपोपगमन सथारा करके समाधिपूर्वक अपनी आयु के अन्तिम क्षणो को सफल बनाता हुमा तथा काल की आकाक्षा न करता हुआ, धर्मसाधना मे विचरण करू गा। सथारा किए जाने पर भी मृत्यु की इच्छा न रखना यह जैन सस्कृति की महती विशेषता है। इस मनोरथ की सिद्धि के लिये धावक मन से, वचन से और काय से नित्यप्रति अभ्यास करे इस से वह कर्मो की महानिर्जरा एव महापर्यवसान करता है।
महापर्यवसान का अर्थ है भवपरम्परा की या अशुभ कर्मो २२० ।
[ योग एक चिन्तन