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२ प्रायु की मर्यादा पूर्ण होने पर एक शरीर छोड कर दूसरे
शरीर को धारण करने के लिये परलोक जाना, कियो के
मारने पर नहीं, अपनी मौत से मरना अवधि-मरण है। ३. जिस भन मे नरकभव या देवभव को प्राप्त किया है, वहा की
प्रायु पूर्ण कर, पुन उसो भव को पाना, जहां में मर कर वहा
गया है। इसको प्रात्यन्तिक-मरण कहते है । ४. महारत या अणुव्रत को भग कर या छोड़ कर मरना वलय
मरण है। ५ इन्द्रियो के दिपयो में ग्रामक होकर मरना वशान-मरण है,
जैसे दीपक की लौ पर पतगा जल कर मर जाता है। वीणा के मधुर स्वर को सुनकर सर्प, जिह्वा के वश होकर मछली
मरती है। ऐसी मृत्यु को वयात मरण कहते हैं । ६ व्रतो मे लगे हए दोपो की आलोचना निन्दना किए बिना
मरना अन्त गल्य-मरण है। ७ जिस भव की आयु पूर्ण को, उसी भव मे पुन उत्पन्न होना,
जैसे मनुष्य का मर कर मनुष्य-भव में उत्पन्न होना, तिर्यच का मर कर तिर्यच योनि में जन्म लेना तद्भवमरण है। ऐसा मरण मनुष्य या तिरंच का ही होता है, देव या नारकियो का
नहीं। ८ अविरत, अपच्चखाणी एव असयत जीवो का मरण वाल
मरण कहलाता है। ६ सर्वविरत संयमी एव सयत जोवो का मरण पण्डित-मरण
माना जाता है।
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[योग एक चिन्तन