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की महाराशि का अन्त करना । जव तक कर्मों की निर्जरा अनन्त गुणा नही होती, तब तक उनका अन्त या महापर्यवसान भी नही होता। मरण-भेद
स्थानाङ्ग सूत्र के दूसरे स्थान के चतुर्थ उद्देशक मे बारह प्रकार के वालमरण का उल्लेख किया गया है जैसे कि १ वलयमरण २. वशात-मरण ३. निदान-मरण ४ तद्भव-मरण ५. गिरिपतन ६ तह-पतन ७ जल-प्रवेश-मरण ८ अग्नि-प्रवेश-मरण ६ विप-भक्षण, १०. शस्त्रावपाटन ११ वेहायस-मरण १२ गृद्धस्पृप्टमरण ।
भगवती सूत्र मे दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक मे निदान-मरण के स्थान मे अन्तःशल्य मरण का उल्लेख है, गेप ग्यारह भेद स्थानाग की तरह ही हैं।
समवायाङ्ग सूत्र के सत्रहवे समवाय मे सत्रह प्रकार के मरणो का उल्लेख किया गया है जैसे कि १ श्रावीचि-मरण, २ अवधिमरण, ३ आत्यन्तिक-मरण ४ वलय-मरण ५ वशात मरण, ६. अन्त शल्य-मरण, ७ तद्भव-मरण, ८ बाल-मरण, ६. पण्डितमरण, १० वाल-पण्डित-मरण, ११ छद्मस्थ-मरण १२ केवलीमरण, १३ वेहायस-मरण, १४. गृदृस्पृष्ट-मरण, १५ भक्तप्रत्याख्यान-मरण, १६ इगिनी-मरण, १७ पादपोपगमन-मरण ।
इन पदो का सक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है१ प्रत्येक क्षण मे आयुष्कर्म के दलिको का क्षय होना आवीचि__ मरण है । यह भेद सभी देहधारी जीवो मे पाया जाता है।
योग एक चिन्तन
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